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Muharram kyu Manaya Jata hai 

जब दीन (इस्लाम) को मोहम्मद साहब ने फैलाना शुरू किया, तब अरब के लगभग सभी कबीलों ने मोहम्मद की बात मानकर अल्लाह का दीन कबूल कर लिया। मोहम्मद के साथ मिले कबीलों की तादाद देखकर उस समय मोहम्मद के दुश्मन भी मोहम्मद साहब के साथ आ मिले (कुछ दिखावे में और कुछ डर से)। लेकिन वे मोहम्मद से दुश्मनी अपने दिलों में रखे रहे। मोहम्मद साहब के आठ जून, 632 ई. को वफ़ात के बाद ये दुश्मन धीरे-धीरे हावी होने लगे।


रसूल मोहम्मद साहब की वफ़ात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया जब कर्बला यानी आज का सीरिया जहां सन् 60 हिजरी को हमीद मावीय के पुत्र यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था तथा कुछ हद तक कामयाब भी हो रहा था। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी पैगम्बर मुहम्मद के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन जो किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने को तैयार नहीं थे।


इस वजह से सन् 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार बढ़ने लगे। ऐसे में वहां के बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे। पर रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया। वह 2 मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका।


वहां पानी का एकमात्र स्त्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी। बावजूद इसके इमाम हुसैन नहीं झुके। यजीद के प्रतिनिधियों की इमाम हुसैन को झुकाने की हर कोशिश नाकाम होती रही और आखिर में युद्ध का एलान हो गया।


हज़रत इमाम हुसैन साहब ने उस पूरी रात अपने परिवार वालों तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। मुहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यजीद के सेनापति उमर बिल साद ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। इसके बाद लड़ाई आरम्भ हो गई। यजीद की 80,000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जंग लड़ी।


उसकी मिसाल खुद दुश्मन फौज के सिपाही एक-दूसरे को देने लगे। लेकिन हुसैन कहां जंग जीतने आए थे, वह तो अपने आपको अल्लाह की राह में त्यागने आए थे। उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त कर ली। दसवें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका।


आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा कि शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का। फिर, उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया। लेकिन इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे और हमेशा के लिए अमर हो गए। पर यजीद तो जीत कर भी हार गया।


बादशाह यजीद जो इस्लाम का दुश्मन था और हज़रत मोहम्मद साहब का मजाक उड़ाता था वह इस क़ाफिले को इस हालत में देखकर बहुत खुश हुआ, किंतु कुछ दिनों के बाद ही अत्याचारी यजीद की बादशाहत खत्म हो गई और वह बुरी मौत मरा। हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लाम पर तथा मानवता पर अपनी जान कुर्बान की जो अमर है। हुसैन साहब पर जुल्म करने वाले कोई गैर नहीं थे बल्कि वही थे जो अपने आपको मुसलमान समझते थे। इस्लाम आज भी ज़िंदा है, क़ुरान शरीफ़ आज भी बाकी है, रोजा, नुपाश अब भी ऐसी ही है और आगे भी रहेंगे। यह सब कुछ हुसैन साहब की कमाई है।


मुहर्रम का पैगाम शांति और अमन ही हैं। युद्ध रक्त ही देता हैं। कुर्बानी ही मांगता हैं लेकिन धर्म और सत्य के लिए कभी घुटने न टेकने का सन्देश भी मुहर्रम देता हैं। इसलिए यह दिन अमन और शांति का पैगाम देते हैं।



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